My Blog List

Monday, December 31, 2012

दोस्तों ! नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ मेरी यह नई नज़्म आपकी नज़र है .
क्या बात है !


विस्मृत लम्हे
उदाश क्षणों में
आ जाए तो क्या बात है!
टूटी उम्मीदें
फिर से जेहन में
छा जाए तो क्या बात है!
बिखरते सपने
खुली आँखों में
समा जाए तो क्या बात है!
बेधड़क बोलने वाले
सुनने वालों की नसीहत में
आ जाए तो क्या बात है!
साल गुजरे
चीख - चीत्कारों में
दंश सुलग जाए तो क्या बात है!
उम्मीदें हमें
जगाए रखीं घनी रात में
मन न अलसाए तो क्या बात है!
सुबोध सिंह पवार

Thursday, November 22, 2012

                      सदी के महानायक का असली चेहरा
 
                                   सुबोध सिंह पवार
भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजारवाद के प्रभाव से ही जन सरोकार से जुड़ी हर सरकारी नीतियां तय हो रही है. इधर नई बात जुड़ी है. अब बाज़ार हमारे लिए महानायक तक पैदा कर रहा है. जिसके बाजार वैल्यू है. गैर व्यवसायिक जनहित में ऐसे महानायक के नाम तक के इस्तेमाल में कीमत की बोली लगानी पड़ती है. ऐसे ही एक महानायक अपने देश में हैं अमिताभ बच्चन. वे महानायक २० वीं सदी के नहीं, बाजारवादी २१ वीं सदी के है. जिसे जबरन जनसरोकार से जोड़ने का प्रयास किया जाता है. इस महानायक का बाज़ार पर इतना प्रभाव है कि भूख से तड़पते युवा चिप्स खाकर ही अपना पेट भर सकता है. महानायक के नाम से जुड़ते ही ब्रांड वैल्यू इस कदर बढता है कि बाज़ार का घटिया उत्पाद भी सोना उगलने लगता है.
अब अपने मुल्क की कठिनाई यह है कि जब मीडिया तंत्र जोर देकर उन्हें उनके नाम के संबोधन के पहले हर बार सदी के महानायक से संबोधित करता है तो हम उनके बारे में महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, जयप्रकाश नारायण या फिर चैग्वारा जैसे करिश्माई व्यक्तित्व  का भ्रम  पाल लेते हैं.
बिहार पुलिस भी महानायक के इसी ब्रांड वैल्यू का लाभ उठाने कि भूल कर बैठी. तभी नक्सल प्रभावित बिहार के कैमुर क्षेत्र के युवाओं को पुलिस में बहाली के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से इनकी तस्वीर का इस्तेमाल किया. जिस पर महानायक ने गहरी नाराज़गी व्यक्त कि है. इतनी नाराज़गी कि बिहार पुलिस न सिर्फ तस्वीर हटाई, बल्कि माफ़ी मांग कर अपनी भूल सुधार कर ली. अब शायद बिहार पुलिस को समझ यह बात आ गई होगी कि महानायक की शख्सियत  का अपना बाज़ार है. इनके चेहरे की झलक के हर सेकेंड का दर भाव है. बाज़ार का यह महानायक ने जनसेवा जैसे फालतू काम में अपना वक्त जाया नहीं करता.
नहीं, मैं गलती लिख गया. इस महानायक ने एक बार अपनी जनसेवा की बहुप्रचारित अपने ब्लॉग पर चर्चा की है. एक साल पहले गर्मी के मौसम में मुंबई स्थित अपनी कोठी के बाहर पीने का पानी दो घड़े में रखे थे. जब सड़कों से गुजरती परेशान जनता घड़े का पानी पीती तो उन्हें यह देख आत्मिक सुख मिलता था.
खैर ! जो होना था सो हो गया. पुलिस जब माफ़ी मांग ली तो विवाद समाप्त हो गया. लेकिन मीडिया तंत्र द्वारा उत्पादों के ब्रांड अम्बेसडर को सदी का महानायक बताये जाने का कारण भी समझ में आ गया. लोगों के बीच पहले यह जुमला प्रचलित था कि - पैसा बोलता है, लेकिन पैसा भांगड़ा नृत्य भी करता है यह देश अब देख रहा है.  
                                                           
                                                                
                          

Friday, November 9, 2012

दोस्तों! तालिबानी हमले के बाद पाकिस्तान की बहादुर बेटी मलाला युसूफजई आज पूरी दुनिया में उस मुखर आवाज की प्रतिनिधि बन चुकी है जो महिलाओं की बंधन मुक्त जिंदगी के लिए गूंज रही है. जड़वादी सोच के खिलाफ लड़कियों की शिक्षा के सवाल पर मलाला ने जिस दिलेरी से खुद को मौत के निशाने पर खड़ा किया ऐसा इसके पहले शहीद भगत सिंह ने ही किया था. मलाला के संघर्षों से आने वाली पीढ़ी प्रेरित होती रहे, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने दस नवम्बर के दिन को मलाला दिवस के रूप में घोषित किया है. यह संयोग है कि मलाला को लेकर मेरे अन्दर जो भावनाएं उमड़- घुमड़ रही थीं , वह काव्य छंदों में बंध कर दस नवम्बर को ही सामने आई. प्रस्तुत है मलाला को समर्पित यह कविता -

 








नई दुनिया, नया आगान
मौत के पदचाप सुनकर भी
बेपरवाह रही तू
विश्वास है तूझे
नहीं कोई क़तर पायेगा
तेरे हौसले के पंख .
तू जानती है
विरोध में हैं जो तेरे
उनका न मजहब, न पंथ
बंद जहनियत, बद गुमानियत
मकसद एक
तेरा अंत ! तेरा अंत !
फिर भी तू घबराई नहीं
दहशत से तू पथराई नहीं
सीने पर गोली खाकर भी
तू न हुई शून्य  चैतन्य.
पासा उनका उल्टा पड़ा
लहू जो सड़कों पर तेरा बहा
हर कतरा जी उठा है
बन दीपन.
बेकार नहीं गया
तेरा लहू का बहना
दीप शिखा सी सुलगती
तेरे विचारों का लपट उठना
गाम - गाम धधकना.
अब मलाल होगा उनको
जो न मिटा सके तुमको
तेरे जज्बात ने रचा
बगावत का नया विधान
नई दुनिया का नया आगान.
                                                                     सुबोध सिंह पवार
                                                                     4/A सन्डेबाज़ार, बेरमो
                                                                        बोकारो, झारखण्ड

Wednesday, July 4, 2012

परेशान परिंदा

उड़ते परिंदे ने
मुझ से पूछा किस डाल पर बैठूं मैं
लगता नहीं  शहर को
अमन से है नाता
हर तरफ जोर का शोर
 बंधे अपनी- अपनी डोर. 
जबकि मैं, जब चाहा
उन्मुक्त उड़ा
गगन, धरा
सहरा - सहरा
न  रोक, न टोक
जिन्दगी से नाता
गहरा - गहरा
 लकिन, तेरे शहर में
बंदिशे ही बंदिशे
सिसकती  आहें
 कातर निगाहें
सब कुछ ठहरा - ठहरा
हर डाल पर पहरा.
फिर सवाल किया
  क्यों गढ रखी है
अपनी वर्जनाएं, मान्याताएं
अपने - अपने विश्वास
एक दूसरे का
उड़ाते परिहास.
फिर उसने कहा
मेरे जंगल के भी कायदे हैं

शेर हो या  सियार
जीने के  तकाजे हैं
न  मंदिर, न मस्जिद
न कोई आसमानी किताब
तभी मेरी नींद खुली
गायब था वह परिंदा
सिर्फ गूंज  रहे थे
उसके सवाल
जवाब में सिर्फ बुदबुदाया
हमें भी  पार  निकलना होगा 
उन वर्जनाओं से
उन विश्वासों  से
जिसकी वजह से
सपने में परेशान था
वह परिंदा.

                                                                                                 सुबोध  सिंह पवार
                                                                                                 4/A - सन्डे बाज़ार
                                                                                                         बेरमो
                                                                                                   जिला - बोकारो