My Blog List

Wednesday, April 10, 2013

रामचंद्र गुहा जी माफ़ करेंगे , मेरी सतही समझ कुछ बोल गई !

कुछ घंटे पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अग्रलेख क्रांतिकारी अंधश्रद्धा के मसीहा को पढने के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे | सवालों के अंतर्बोध के साथ आगे बढ़ने के पहले मै गुहा जी इस बात के लिए माफ़ी चाहूँगा कि उनके दिव्य ज्ञान और गहरी अनुभूति के कायल होने के बावजूद उनके अग्रलेख पर मेरी सतही समझ कुछ कहने को बेक़रार हुई है |
उन्होंने लिखा है कि वैज्ञानिक सोच का दावा करने वाले क्रांतिकारियों ने माओ की जितनी पूजा की उतनी तो किसी लोकतंत्र में चाटुकारों ने भी अपने नेता की नहीं की होगी | उन्होंने कम्युनिस्ट विरोधी पत्रकार जी आर अरबन की संपादित पुस्तक में वर्णित कुछ लोकश्रुति को सामने रखकर माओ की कथित पूजा का उदाहरण सामने रखा है | मै जो समझता हूँ कि पिछले हजारों वषों के अंतराल में फासिज्म ने हमें विश्वास की श्रेष्ठता में जो जीना सिखाया उसी का नतीजा है कि समाज के हर वर्ग आचरण और व्यवहार को अपने तरीके से प्रभावित कर रखा है | खासकर जब कोई शख्स अपने असधारण सोच और कामों से लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाता है तो उसके आचरण और व्यवहार और सोचने-समझने के तौर-तरीके को काफी प्रभावित करता है | तब चाहे वह विद्वान् हो या फिर सतह का आम आदमी ,उस शख्स के नाम की श्रेष्ठता खुद में आत्मसात कर अनजाने में ही सही लेकिन व्यक्ति पूजकों की पंक्ति में खड़ा हो जाता है | यही कारण है कि वैज्ञानिक आइंसटाइन ने गाँधी जी के कामों से प्रभावित होने के बाद कहा था कि आने वाली पीढियां यकींन नहीं करेंगे कि गाँधी हाड़-मांस का व्यक्ति था | इसे क्या कहेंगे आइन्स्टीन की अंधश्रद्धा या गाँधी से जुडी उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति ? 6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण में नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने पहली बार बापू को राष्ट्रपिता से संबोधित किया था| इसे क्या नेता जी की अंधश्रद्धा कहेंगे ? कोर्ट -कचहरी में माई लॉर्ड जैसी औपनिवेशिक संबोधनों को वह पेशवर तबका अब तक ख़त्म नहीं कर सका जो न्याय जैसे महानतम मूल्यों का खुद सिपाही कहता है | अब इसे क्या कहेंगें कि आवेदन लिखते वक्त चेयर पर्सन के पद के आगे श्रीमान /माननीय जैसे विशेषणों को लिखने कि जरुरत पड़ती है | कुर्सी वंदना की इस परम्परा से आज कौन मुक्त है | उदाहरण के लिए उपायुक्त शब्द में ही कुर्सी की गरीमा और उसकी ताकत निहित है | इसके बावजूद उपायुक्त शब्द के आगे श्रीमान या बाद में महोदय लिखने कि क्या जरुरत है? कोर्ट में जज को सीधे सर से संबोधित करने से वकील क्यों परहेज करतें हैं | यानी साफ़ है कि सभ्यता के विकास के पथ पर चलते-चलते हमारी नशों में व्यक्ति पूजा की लहू दौड़ रही है | माओ को इस बात का जरुर श्रेय है कि अफीम के नशे में डूबे चीन में चार देशों की औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के जो क्रमशः आन्दोलन चले थे उसे लाल फ़ौज कई ताकत से उन्होंने नतीजे पर पहुँचाया था| मेहनत-मजदूरी करने वाले प्रतिष्ठत हुए थे | ऐसे में यदि यह लोक श्रुति आम-आवाम के बीच बन गई कि माओ की प्रेरणा से एक गूंगी बोलने लगी या हकीकत में एक टेबल टेनिस का खिलाडी अपनी सफलता का श्रेय माओ के अंतर्विरोधों के बारे में लिखे लेखों को दिया तो इसमें सामाजिक बदलाव के लिए दीर्घकालीन संघर्षों के रास्ते पर आगे बढ़ने वाली क्रांतिकारी जमात कैसे चाटुकारों कई श्रेणी में खड़े हो गए ? स्वाभाविक है कई माओ को मानने वालों में आम आदमी के बीच का वह बड़ा तबका शामिल है जिन्हें मानसिक पिछड़ापन से मुक्त होना बाकी है | यदि ऐसे में कोई माओ का मंदिर बनाकर पूजा शुरू कर दे तो इसके लिए पूरी दुनिया के 98 फीसदी लोग जिम्मेवार हैं जो आरती ,वंदना ,प्रार्थना और स्तुति में जनता की मुक्ति की राह तलाशने में अपना समय बर्बाद करते आ रहे हैं |

No comments:

Post a Comment