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Thursday, November 22, 2012

                      सदी के महानायक का असली चेहरा
 
                                   सुबोध सिंह पवार
भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजारवाद के प्रभाव से ही जन सरोकार से जुड़ी हर सरकारी नीतियां तय हो रही है. इधर नई बात जुड़ी है. अब बाज़ार हमारे लिए महानायक तक पैदा कर रहा है. जिसके बाजार वैल्यू है. गैर व्यवसायिक जनहित में ऐसे महानायक के नाम तक के इस्तेमाल में कीमत की बोली लगानी पड़ती है. ऐसे ही एक महानायक अपने देश में हैं अमिताभ बच्चन. वे महानायक २० वीं सदी के नहीं, बाजारवादी २१ वीं सदी के है. जिसे जबरन जनसरोकार से जोड़ने का प्रयास किया जाता है. इस महानायक का बाज़ार पर इतना प्रभाव है कि भूख से तड़पते युवा चिप्स खाकर ही अपना पेट भर सकता है. महानायक के नाम से जुड़ते ही ब्रांड वैल्यू इस कदर बढता है कि बाज़ार का घटिया उत्पाद भी सोना उगलने लगता है.
अब अपने मुल्क की कठिनाई यह है कि जब मीडिया तंत्र जोर देकर उन्हें उनके नाम के संबोधन के पहले हर बार सदी के महानायक से संबोधित करता है तो हम उनके बारे में महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, जयप्रकाश नारायण या फिर चैग्वारा जैसे करिश्माई व्यक्तित्व  का भ्रम  पाल लेते हैं.
बिहार पुलिस भी महानायक के इसी ब्रांड वैल्यू का लाभ उठाने कि भूल कर बैठी. तभी नक्सल प्रभावित बिहार के कैमुर क्षेत्र के युवाओं को पुलिस में बहाली के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से इनकी तस्वीर का इस्तेमाल किया. जिस पर महानायक ने गहरी नाराज़गी व्यक्त कि है. इतनी नाराज़गी कि बिहार पुलिस न सिर्फ तस्वीर हटाई, बल्कि माफ़ी मांग कर अपनी भूल सुधार कर ली. अब शायद बिहार पुलिस को समझ यह बात आ गई होगी कि महानायक की शख्सियत  का अपना बाज़ार है. इनके चेहरे की झलक के हर सेकेंड का दर भाव है. बाज़ार का यह महानायक ने जनसेवा जैसे फालतू काम में अपना वक्त जाया नहीं करता.
नहीं, मैं गलती लिख गया. इस महानायक ने एक बार अपनी जनसेवा की बहुप्रचारित अपने ब्लॉग पर चर्चा की है. एक साल पहले गर्मी के मौसम में मुंबई स्थित अपनी कोठी के बाहर पीने का पानी दो घड़े में रखे थे. जब सड़कों से गुजरती परेशान जनता घड़े का पानी पीती तो उन्हें यह देख आत्मिक सुख मिलता था.
खैर ! जो होना था सो हो गया. पुलिस जब माफ़ी मांग ली तो विवाद समाप्त हो गया. लेकिन मीडिया तंत्र द्वारा उत्पादों के ब्रांड अम्बेसडर को सदी का महानायक बताये जाने का कारण भी समझ में आ गया. लोगों के बीच पहले यह जुमला प्रचलित था कि - पैसा बोलता है, लेकिन पैसा भांगड़ा नृत्य भी करता है यह देश अब देख रहा है.  
                                                           
                                                                
                          

1 comment:

  1. बाजारवाद के दौर में ब्रांड बनाये और चेक की तरह भुनाए जाते हैं. यह पूरी तरह व्यावसायिक मामला है. अमिताभ बच्चन अच्छे कलाकार हैं लेकिन समाजसेवी तो कहीं से नहीं हैं.

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